




The Khabar Xpress 10 अगस्त 2024। जैसे ही शिक्षा विभाग का नया सत्र आरंभ होता है, निजी स्कूलों में व्यापार की तैयारियां आरंभ हो जाती हैं। स्कूलों में प्रवेश शुरू होने के होर्डिंग लग जाते हैं। पिछले वर्ष उतीर्ण हुए बच्चों के बड़े बड़े नाम हर चौक-चौराहे पर नजर आने लगता है। यही से खेल कमीशन का शुरू हो जाता है। निजी स्कूलों में बच्चों के लिए किताबें, ड्रेस, बेल्ट, ब्लेजर बेचने के लिए विभिन्न कंपनियों के प्रतिनिधि स्कूल संचालकों के साथ मिलकर सांठ-गांठ में जुट जाते हैं। एक तरफ जहां मोटा कमीशन का खेल शुरू करने की तैयारियां हो जाती हैं वहीं दूसरी तरफ शिक्षा विभाग बिल्कुल सुस्त रहता है। जैसे उन्हें किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं है। विभाग की इस सुस्ती के कारण अभिभावकों को हर वर्ष इन स्कूलों के चंगुल से छुटकारा मिलने की संभावना कम ही दिखाई देती हैं।
निजी स्कूलों की मनमानी कार्यप्रणाली से अभिभावकों को हर वर्ष भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसमें से कुछ स्कूल जहां बच्चों को स्कूल के अंदर से ही किताब और ड्रेस आदि लेने के लिए मजबूर करते हैं तो कुछ स्कूल शहर के एक-दो चुनिंदा किताब की दुकानों से सांठ-गांठ कर अभिभावकों को इन्हीं दुकानों से किताब खरीदने के लिए मजबूर करते हैं। हर वर्ष इन स्कूलों के द्वारा सिलेबस भी बदल दिए जाते हैं। ऐसे में पुरानी किताबें एक ही घर के बच्चे आगे-पीछे की कक्षाओं में होने के बाद भी उपयोग नहीं कर पाते। किताबों के अलावा निजी स्कूलों में टाई, बेल्ट, ड्रेस, जूते-मोजे, बैच, ब्लेजर खरीद पर भी खुलेआम कमीशन का खेल चलता है। इन सभी के लिए भी स्कूलों की तरफ से दुकानें निर्धारित होती हैं। इन दुकानों पर अभिभावकों को अधिक मूल्य पर सभी समान बेचे जाते हैं। अभिभावक भी बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखकर स्कूल के खिलाफ कुछ नहीं बोलते। वहीं शिक्षा विभाग का यह तर्क होता है कि अभिभावकों की तरफ से शिकायत नहीं मिलती, शिकायत मिले तो कार्रवाई की जाएगी। शिक्षा विभाग प्राइवेट पब्लिशर्स की किताबें हटाने को लेकर कोई ठोस पॉलिसी तैयार नहीं कर पाया है। प्रशासन के आला अधिकारी भी आंखें बंद कर लेते हैं। लोगों का मानना है कि प्राइवेट स्कूल प्रबंधकों के खिलाफ विभाग के अधिकारी कोई भी कार्रवाई करने से डरते हैं।
अधिकांश निजी स्कूल संचालक राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीइआरटी) की किताबें मंगाने में रुचि नहीं दिखाते। निजी विद्यालयों में से 80 फीसदी विद्यालयों में निजी प्रकाशकों की महंगी किताबें पढ़ाई जाती हैं। इन किताबों की कीमत एनसीइआरटी से कई गुणा अधिक होती हैं। कई किताबों में तो प्रिंट रेट के ऊपर अलग से प्रिंट स्लिप चिपकाकर प्रकाशित मूल्य से कहीं अधिक वसूली की जाती है। निजी स्कूलों में कमीशन के चक्कर में हर साल किताबें बदलने के साथ अलग अलग प्रकाशकों की महंगी किताबें लगाई जाती हैं अभिभावक भी बच्चों के भविष्य को लेकर ज्यादा विरोध नहीं कर पाते। कक्षा 5 के बाद NCERT की किताबें अनिवार्य है लेकिन यहाँ भी स्कूल संचालको एवं कंपनी के प्रतिनिधियों ने बीच का रास्ता निकाल लिया है और महंगे दामो पर NCERT आधारित किताबे अपने कोर्स में शामिल कर अभिभावकों की जेब पर डाका डालते है।
एनसीआरटी की किताबों में पुस्तक विक्रेताओं को मात्र 15 से 20 फीसद ही कमीशन मिलता है। जबकि अन्य प्रकाशकों से 40 से 50 फीसदी तक कमीशन देते हैं। इसके अलावा स्टेशनरी के ऑफर अलग मिलते हैं। जानकारी के अनुसार इस मोटे कमीशन के लालच में स्कूल संचालक प्रकाशकों से सीधा डील कर सीधे स्कूलों में ही किताबें मंगा लेते हैं जिससे पुस्तक विक्रेताओं को मिलने वाली पांच से दस फीसदी का कमीशन भी निजी स्कूलों को मिलता है। या फिर स्कूल द्वारा निर्धारित किए गए पुस्तक विक्रेताओं से अपना कमीशन प्राप्त करते हैं। प्रतिवर्ष होने वाले इस खेल में ही स्कूल संचालकों को लाखों का फायदा होता है।
निजी स्कूल संचालक एनसीईआरटी की किताबो की बजाय उनपर आधारित महंगी किताबे कक्षाओं के लिये लागू करते है। जो कोर्स 500-700 में आजाता है वो अब 5-7000 में खरीदना पड़ रहा है। स्कूल अपनी मनमानी करते है। जितनी स्कूल की फीस है उतनी बच्चों को सुविधाएं भी नहीं मिलती।
जयकिशन बाहेती, अभिभावक

शिक्षाका व्यवसायीकरण
शिक्षा के व्यावसायीकरण का अर्थ, लाभ को बढ़ाने के एकमात्र उद्देश्य के साथ स्कूल खोलना या कॉर्पोरेट कंपनियों के रूप में काम करते हुए शिक्षा प्रदान करना है। शिक्षा में यह कॉर्पोरेट संस्कृति अब भारत में बहुत तेज़ी से फैल रही है। पिछले वर्षों के दौरान खोले गए सभी प्री-स्कूलों में से लगभग 99% विशुद्ध रूप से व्यावसायिक उद्यम हैं। कई शिक्षाविदों ने उन्हें “एजुकेशन शॉप या शिक्षा की दुकान” की संज्ञा दी है.
शिक्षा का व्यावसायीकरण न सिर्फ़ शिक्षा के मूल्यों और शिक्षण की भावना के विरुद्ध है बल्कि यह तो भारत के संविधान के भी खिलाफ है। एक्सपर्ट्स कहते हैं कि मूल रूप से, “राइट टू एजुकेशन या शिक्षा का अधिकार” (RTE) को भारत के संविधान में एक मौलिक अधिकार के रूप में रखा गया था। हालांकि, बाद में यह राज्य के नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा बन गया।
नीति निर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 14 के अनुसार “14 साल की उम्र तक मुफ्त शिक्षा प्रदान करना सरकार का कर्तव्य है.” आरटीई में इसी बात पर ज़ोर दिया गया है, जो कि संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है। इस प्रकार, इस अधिनियम के अनुसार, 14 वर्ष से कम आयु के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा का अधिकार है लेकिन शिक्षा का व्यावसायीकरण इस एक्ट का विरोधाभासी है या कह सकते हैं कि आरटीई की मूल भावना का उल्लंघन करता है।

